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यादें पुस्‍तक ''कैराना कल और आज' , www.kairana.net और इस ब्‍लाग तक



उमर कैरानवी

है मुख़्तसर, मगर बातें सारी हैं।
है क़लम मेरी, पर यादें तुम्हारी
हैं।।

परम्परा है कि पुस्तक कैसे, क्यों एवं किस उददेश्य से छपी उस पर कुछ प्रकाश डाला जाए। इसलिए स्मरण, यादादश्त, को शब्दों में प्रस्तुत कर रहा हूँ। जिसमें नई जानकारियाँ सामने आयेंगी।
साहित्यिक मेगज़ीन ‘‘जदीद अदब’’ जर्मन, उर्दू की प्रथम मेगजीन जो सम्पूर्ण वेबसाइट पर भी होती है, जिससे मैं दो वर्ष संबन्धित रहा, पर मुद्रित मेरा नाम उमर कैरानवी देखकर पाकिस्तान की एक बडी संस्था ‘‘ख्वाजा फरीद फाउन्डेशन’’ के सेक्रेटरी मुजाहिद जतोई ने पत्र द्वारा सम्पर्क किया और सहायता माँगी कि लगभग 100 वर्ष पूर्व में कैराना के ‘‘मिर्ज़ा अहमद अख़तर’’ जिन्होंने लगभग 50 पुस्तकें लिखी हैं, उनकी उन 10-12 पुस्तकों की तलाश है जो ख़्वाजा फरीद पर लिखी गयी हैं।
इसी कारण मैंने शायर डा. सलीम अखतर से सम्पर्क किया कि जिनका उपनाम अखतर है। कुछ हाथ न आया केवल एक मोहर और दो शे’रों के , मिर्जा अख़तर की तलाश में अपने इतिहास से लगाव हो गया।
न छेड़ ए हमनशीं प्रदेस में भूला सा अफसाना
मुझे पहरों रूलाता है मेरा घर मेरा कैराना।
मुन्शी मुनक्क़ा
इन्हीं दिनों अकबर अन्सारी साहब पुत्र रामू ने हमें एक पुस्तक ‘‘गुल आसारे रहमत’’ दी जिससे हमें दिशा मिली, अगली जानकारियों के जुटाने के सूत्र मिले। वेबसाइट में ईदगाह पर लेख अधिकतर अकबर साहब की जानकारियों पर आधारित है। जबकि इस पुस्तक में जो ईदगाह पर लेख है वह मेरी जानकारियों पर आधारित है।
बहुत से लेख और पुस्तकें एकत्र होने पर सोचता था कि उन्हें समाचार पत्रों में छपवाऊंगा या कभी पुस्तक छापूंगा। इन दोंनों विचारों के साकार करने और लेखों को रोचक बनाने के लिये कुछ चित्रों को एकत्र कर लेना भी जरूरी लगा। ऐतिहासिक इमारतों के चित्र लेना अच्छा लगा। लगभग हर गली मौहल्ले की ऐतिहासिक महत्वपूर्ण इमारतों की चाहे वह चोर बना पथर हो या दूर यमुना नदी या बहुत दूर पानीपत में स्थापित कसौटी के स्तम्भ के चित्र सब जमा करता गया, सलीम साहब के साथ होने से उकताहट भी नहीं होती थी।
दरबार दरवाजे का चित्र लेते समय सलीम साहब के जानकार ने 10 सितम्बर 1997 का ‘‘दैनिक जागरण’’ समाचार पत्र हमें दिया। जिसमें मामचंद चैहान का एक महत्वपूर्ण लेख ‘‘कैराना जो कभी कर्ण की राजधानी थी’’ छपा था। यह लेख कैराना विषय पर की पी.एच.डी. का सार था जो श्री आसाराम शर्मा जी पूर्व प्रधानाचार्य पब्लिक इण्टर कालिज-कैराना ने की थी। इसी लेख को पढकर इच्छा हुई कि इसे हर कैराना वासी पढे, जो कि मेरी तरह कैराना के इतिहास में केवल नवाब शब्द को जोकि नवाब तालाब, नवाब दरवाजे के बारे में सुन लेते हैं के अतिरिक्त कुछ नहीं जानते।
प्रत्येक उत्साहीजन तक इन ऐतिहासिक जानकारियों के पहुँचाने का एक ही उपाय समझ में आया कि वेबसाइट बनाई जाए। जो कि सबसे सरल और सस्ता साधन है एवं जिसे दुनिया में कहीं भी कभी भी देखा जा सकता है। इस सपने को साकार करने के लिए अपने अमेरिकन मित्र काशिफ से ई.मेल द्वारा अपनी इच्छा बताई। जिनकी वेबसाइट उर्दुस्तान डाट कोम में मैं भारतीय प्रतिनिधि हू। इस वेबसाइट को विश्व में हजारों उर्दू वाले प्रतिदिन देखते हैं। उन्होंने अपने वेबस्पेस से कुछ स्थान मुझे दिया और 2004ई. में www.urdustan.net/kairana नाम से रजिस्ट्रेशन कर दिया जो अभी जारी है।
इसी बातचीत के दौरान मैं दिल्ली में वेबसाइट का प्रशिक्षण ले चुका था। अनुभव और एवान-ए-गालिब-दिल्ली में कम्पयूटर से सम्बन्धित नौकरी जिसमें सप्ताह में दो दिन के अवकाश में कैराना रहने से वेबसाइट सम्भव हो सकी।
डा. सलीम साहब जो कि कान रोग विशेषज्ञ हैं प्रारम्भ से ही इस उद्देशय में साथ हैं इनका महत्वपूर्ण योगदान रहा। समाचार पत्र में वेबसाइट का समाचार छपने पर नए मित्र इस उद्देश्य में साथ हो लिए, उनके साथ मिलकर कैराना वेबसाइट समिति बना ली गई। स्नेह लता जिन्होंने कि इस पुस्तक हेतु प्रेरित किया का योगदान उल्लेखनीय है। अमित गर्ग, मुकेश गोयल, साद अखतर सिद्दीकी, मुशर्रफ सिद्दीकी, ज़ियाउल इस्लाम बागबॉ एवं मेहरबान अली कैरानवी के योगदान के बारे में जितना लिखूं कम है। इक़बाल और ताराचंद जी से बहुत उम्मीदंे हैं।
सलीम साहब जैसे जो सर्दी हो या धूप या फिर बारिश स्वयं यह पूछते हैं बताओ अब कहाॅ चलना है या क्या करना है। कैराना में ऐसे दो-चार मिल जाते तो इतने समय में बहुत कुछ सम्भव था। अब स्नेह लता, भांजे सलीमुद्दीन और भतीजे ज़ियाउल इस्लाम की दिलचस्पी भी प्रशंसनीय है।
कैराना विषय पर कहीं कोई जानकारी इन्टरनेट पर ढूँढता है उसे हमारी वेबसाइट मिल जाती है। वेबसाइट की सफलता को देखते हुए विचार किया कि साइट का नाम छोटा होना चाहिए जिसे याद रखा जा सके एवं एक से दूसरे को बताने में सरलता रहे। इसलिए 2005में www.kairana.net नाम से रजिस्टेªशन करा लिया गया। अब साइट दोनों नाम से है लेकिन नई जानकारियाँ चित्र आदि कैराना डाट नेट पर ही डाली जा रही हैं । इसे अब जनवरी 2009 ई. तक लगभग 5000 बार देखा जा चुका है। (अफसोस 2011 में यह भी बंद हो गयी)
हिन्दी में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं इसलिए उर्दू से हिन्दी में रूपांतर किया गया। इस कारण यह समझना मुश्किल था कि उर्दू शब्द معمار के लिए मेमार, लिखें या मे‘मार हालांकि मैमार लिखना मुझे ठीक लगा जबकि हिन्दी शब्दकोष में मेअमार लिखा है। वालिद को अब्बा लिखूं या पिताजी लिखूं? यह पुस्‍तक उर्दू में फरीद बुक डिपो दिल्‍ली से छपवाई,


इस पुस्तक के अधिकतर लेख वेबसाइट पर पहले से पढे जा रहे हैं जिनमें कई लेख तो दुर्लभ हैं। रिक्त स्थान में भी महत्वपूर्ण जानकारियॉ दी है। अफसोस कि 64 पृष्ठों की इस पुस्तक में उर्दू पुस्तक ‘‘आसारे रहमत’’ और वर्तमान में एकमात्र उपलब्ध उर्दू पुस्तक ‘‘हरीमे अदब’’ के बारे में जानकारी न देसका। ऐसा लगता है कि ताबिश साहब शायद स्वयं इसे हिन्दी में छापें। बातें सारी हैं इसमें नहीं तो वेबसाइट में पढ सकते हैं। पुस्तक में देना बहुत कुछ था पर संयोजक के मिलने के बाद कहॉ रूका जाता है!
इन्टरनेट पर अभी अधिक की पहुँच नहीं हो पाई इसलिए सभी तक अपना इतिहास पहुंचे यह पुस्तक इसका प्रयास है। वेबसाईट में कई पुस्तकें उपलब्ध हैं।
इस पुस्तक में श्री राजेन्द्र कुमार साहब, डा. एन. सिहं साहब प्राचार्य-महाविद्यालय, कौसर ज़ैदी साहब, काज़िम अली जै़दी साहब, अन्सार सिद्दीकी साहब, डा. ऐवज़ साहब जो जनपद के पहले ऐसे शायर जिनका दीवान आनलाइन है से मशवरा किया, सभी ने हौसला बढ़ाया।
जावेद रज़ा और शाह रज़ा को अच्छे कामों में सदैव हर तरह से सेवा के लिए तैयार पाया। डा. इसरार क़ासमी और शान-ए-बागबॉ कमेटी ने भी प्रोत्साहित किया।
हमारा सौभाग्य कि यह पुस्तक अब्बा जी अवकाशप्राप्त अधायपक श्री हाजी मौलाना शमसुल इस्लाम मज़ाहिरी बागबॉ के सौजन्य से आपके हाथों में है। आपके द्वारा हिन्दी में रूपान्तरित उर्दू पुस्तक एक मुजाहिद मैमार मौलाना रहमतुल्लाह कैरानवी छप चुकी है। इस पुस्तक में अब्बा जी की दिलचस्पी प्रशंसनीय रही। सौभाग्य से आपकी उर्दू, हिन्दी, अरबी, फारसी, धार्मिक एवं इतिहास के असीमित ज्ञान से जो कैराना में अतुल्य है से लाभान्वित हो रहा हूँ। दो बार अरब और तीन बार पाकिस्तान का सफर करने से आपके ज्ञान में और वृदिध्‍ी हुई है। आपको मदरसा सौलतिया-मक्का में क़्याम ;निवास, के दौरान मक्का की एक बडी संस्था द्वारा बतौर अरबी-फारसी उस्ताद बनाने की पेशकश की गई जो आपने नामन्ज़्ूर की, क्योंकि मक्का में जो विवशता के कारण कुछ समय के लिए दफ़न किया जाता है वह आपको पसन्द नहीं।
पुस्तक की त्रुटियॉ हाफिज मास्टर सलीमुद्दीन बागॉ , और अब्बा जी से दूर कराई गई हैं। यह केवल जानकरियॉ हैं, अपने लेख के बारे में कह सकता हूं कि प्रयाप्त अवलोकन के पश्चात लिखे हैं। दूसरों की वे जानें या ख़ुदा जाने। पूरी पुस्तक पढेंगे तो जानकारी को अपने आप समझ लेंगे। फिर भी किसी त्रुटि पर दृष्टि पडे तो बताईये वेबसाइट में और तीसरा संस्करण सम्भव हुआ तो उसमें ठीक कर लिया जायेगा। उर्दू में भी यह पुस्‍तक छापी थी जो इतन्‍ी कामयाब नहीं रही,
अब तक मिली ऐतिहासिक पुस्तकों में मुझे 16 पृष्ठ की उर्दू पुस्तक ‘‘कैराना शरीफ’’ बहुत पसन्द आई, क्यूंकि इसमें कैराना का इतिहास हिन्दु-मुस्लिम की सभी जातियां के योगदान का ख्याल रखते हुये मन्जूम बयान किया गया है। बार-बार पढने से मुझे भी शायरी का शौक़ हो गया। यह पुस्तक और सफी साहब का परिचय वेबसाइट में उपलब्ध है।
मोबाइल के द्वारा वेबसाइट बहुत जल्द आपके हाथों में होगी, वह समय आने से पहले आपके लिये वेबसाइट बन चुकी है। वेबसाइट का वार्षिक खर्च, चित्र खींचने और पुस्तकें आदि खरीदने में काफ़ी खर्च होजाता है, में कोई अमीर, सक्षम, नहीं इसलिए देखते हैं यह जुनून कब तक सवार रहता है। लेखक भी नहीं हूं आप तक जानकारियां पहुंचाने के लिए लिखना शुरू किया, इस लिए प्रोत्साहन की बहुत ज़रूरत है।

इन सब बातों को देखते हुये ब्‍लाग बनाया आशा करता हूं कि पाठकों का सहयोग मिलेगा



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