कस्बा कैराना के पश्चिम मे अनुमानतः १८८० ई. में लगभ 20 बिगह में बनी ईदगाह जो सौभाग्य और सुव्यवस्था से सफेदी में अलग ही सौन्दर्य बिखेरती हुई आज भी सुशोभित है। इस्लामी स्थापत्यकला (फन्ने ता‘मीर)की बहतरीन मिसाल है। सुन्दर एवं लुभावनी जिसे देखने वाला देखता रह जाता है। ऐसी सुन्दर ईदगाह किसी कस्बे, शहर तो क्या संसार में भी कहीं नहीं। उस्ताद महमूद खाँ स़फी कैरानवी, अपनी मन्ज़ूम उर्दू पुस्तक ‘‘कैराना शरीफ़’’ में ईदगाह की प्रशंसा यूँ करते हैं
यहाँ ईदगाह भी है एक दिलरूबा
बडी दिलकुशा है बहुत खुशनुमा।
पडी जैसे सूरज की इस पर निगाह
तो आता है रोज़ाना वक्ते पगाह(सुबह)।
ईदगाह जिसकी आज हरे नीम के पेडे शौभा बढा रहे हैं कभी इस स्थान पर एक रात में बाग तैयार दिखाया गया था। इस बारे में मुशर्रफ सिद्दीकी, एडिटर साप्ताहिक ‘‘अमन के सिपाही’’ 28 फरवरी 2005 ई. के अंक में इस कहानी को कुछ इस तरह से लिखते हैं।
‘‘कैराना की प्राचीन ईदगाह की तामीर से पूर्व इस भूमि पर खण्डरात थे और पुजाएं के नाम से जाने जाते थे। उक्त भूमि पर एक समाज के लोग अपना हक जताते थे, दूसरी और चैधरी इमदाद अली उक्त भूमि पर अपना हक जताते थे। दोंनों पक्षों का विवाद अदालत तक पहुँचा। एक पक्ष के लोगों ने उक्त भूमि को बाग बताया। मजिस्ट्रेट ने कमीशन भेजा और खुद भी मुआयना किया। अगले रोज कमीशन पहूँचा तो वहाँ पर बाग मौजूद था।
बताते हैं कि उक्त भूमि पर रातों-रात सफाई कराकर आम के बडे टहने एव कुछ पेड लगाए गए थे। दूसरे पक्ष ने कहा कि यह कल रात ही लगाये गये हैं इन्हें हिलाकर देखिये मजिस्ट्रेट ने कहा हम यह देखने आये हैं कि इस भूमि पर क्या है यह नहीं कि कब से है। फिर चैधरी इमदाद साहब (दादा चैधरी अखतर हसन वर्तमान अध्यक्ष ईदगाह समिति) और दूसरे पक्ष के बीच समझौता हुआ कि इस भूमि पर आगे कोई अपील न की जाये और न ही आगे लड़ा जाये। इस जगह पर ईदगाह की तामीर करा दी जाये। जो सभी लोगों के काम आ सके और ऐसा ही किया गया।’’
imLi ka ped,peechhe eidgah men dikhayi de raha he
कैराना के आकर्षण का केन्द जो लगभग 20 बिगह में बनी इस बेमिसाल ईदगाह में इस समय अधिकतर नीम के पेड लगे हैं।
ईदगाह की दो तरफ सडक और दो तरफ चौधरी अख़्तर साहब की कृषिभूमि है। यह चौधरी साहब की ज़मीन (भूमि) काफ़ी नीची है मेरा अनुमान है कि ईदगाह को प्रयाप्त ऊँचाई देने और निर्माणकार्य में इस स्थान की मिटटी का प्रयोग हुआ होगा। क्यूंकि पास ही दूसरी ज़मीनें सडक की ऊँचाई के बराबर हैं। ईदगाह की चारों ओर छोटी बडी कई बहुत सी पेडियां हैं, सडक की ओर वाली पेडियां भराओ के कारण दबती जा रही हैं। सडक की तरफ की जालीदार दीवार जिसमें अक्सर लोग अपने जानवर बाँध देते थे टूट जाती थी कुछ समय पूर्व इसे चैडा करा दिया गया है।
काबा की पुरानी पिक्चर से पता चलता है कि ईदगाह के दोनों दरवाजों और अंदर 10 दरवाजों के सपील के डिजाइन उससे लिए गए हैं ।
मेन गेट के पास चैडी मुंडेर वाला कुआँ था उसे 1995ई. में पाट दिया गया है। इसी के क़रीब एक हैंडपम्प काफ़ी दिन तक लगा रहा।
ईदगाह के दो हिस्से हैं जिन्हें कच्ची ईदगाह और पक्की ईदगाह कहा जाता है। कच्ची तिकोने आकार में हे कभी इसमें मिर्च मण्डी थी जो यहीं से हलवाईयों के कब्रिस्तान के सामने चली गई थी। सुलेमान बागबाँ साहब का कहना है कि नेकदिल मौलवी मौ. उमर साहब मरहूम को मण्डी का जाना पसंद नहीं आया था उनकी बददुआ से तभी से कैराना की मिर्च में उसकी विशेषता गायब होती चली गई।
कच्ची ईदगाह अब सडक से लगभग दो फुट की ऊँचाई पर है इसमें एक बडा बरामदा सपील और एक कोठा जो कि शायद चैकीदार के लिये बना है जिसमें अधिकतर आटा चक्की चलती रही है। इसमें कई नीम के पेड लगे हैं अब कई पेड नए लगाये गये हैं। कच्ची ईदगाह मे 2003 ई. तक एक इमली का पेड था जिससे ईदगाह का आकर्षण दोगुना हो जाता था। कैराना की वर्तमान नस्ल जो ईद की नमाज़ के लिये आते रहे हैं एवं आसपास की आबादी वाले इस इमली के पेड को बहुत याद करते हैं।
पक्की ईदगाह जो कच्ची से लगभग 4 फुट ऊँची है लाल ईंटों की जोकि चैडी मुडेर में 6 पेडियों और छोटे-बडे बहुत से पुश्तों के साथ चकोर बनी है। चैबारे के नीचे ईंटों के फर्श पर लिखी तिथि से पता चलता है कि 1961 में पक्की ईंटों का फर्श किया गया। सुलेमान साहब का कहना है कि ईदगाह का फर्श मौलवी मौ. उमर साहब की महनत से इकटठा किये गये पैसों से हुआ था और ईदगाह पानीपत के कारीगरों ने बनाई थी। इसमें दो छोटे बरामदे और एक चैबारा बना है जो कि ईदगाह का सबसे सुन्दर हिस्सा है, इस चौबारे में मुगलकालीन इमारतों में प्रयोग होने वाला रंग रोगन कहीं-कहीं से अभी भी दिखाई देता है। इसमें कलात्मक फूल-पत्तियों, चार छोटे मीनारों, जीलियों और छजली से मोहित कर देने वाली सुन्दरता है। बुजुर्ग बताते हैं कि कभी इस की दो मंजि़ला छत पर से यमुना दिखाई देती थी। पक्की ईदगाह में नीम के पेड लगे हैं 7-8 वर्ष पहले तक शीशम के पेड भी थे। जैसे ताजमहल को हुमायुं के मकबरे के आधार पर डिजाईन किया गया था उसी तरह ऐसा प्रतीत होता है कि कैराना की ईदगाह का डिजाईन मुगलकालीन इमारत ‘‘चांदनी हज़ीरा’’ जो बूचडखाना वाले रोड पर बनी है से लिया गया है। क्यूंकि ईदगाह की पुश्त की दीवार और प्लेटफार्म(चबूतरा) जोकि ईदगाह का मुख्य ढांचा है वह चांदनी हज़ीरा से मिलता जुलता है इसी लिये ‘‘चांदनी हज़ीरा’’को पुरानी ईदगाह भी कहा जाता है। जबकि डा. तनवीर अहमद अल्वी कहते हैं कि वो कब्रिस्तान में बनी इमारत जनाज़ा की नमाज़ पढने के लिये थी।
1978 ई. में यमुना में ऐसी बाढ़ आई थी कि पानी लगभग 4 कि.मी. बहकर कैराना आ गया था। पानी को आगे बढने से रोकने के लिये ईदगाह के बराबर वाली सडक पर कडा(आड-अवरोध) लगाया गया थी। भोले-भाले लोग कहते थे कि यमुना ईदगाह को सलाम करने आई है।
ईदगाह के दो ऊँचे मीनार हैं जिसमें खेतों की तरफ बायी ओर का मीनार गिर गया था इस पर लगे शिलालेख से पता चलता है कि इसे नवम्बर 1967 ई. में ता’मीर किया गया है।
धार्मिक पुस्तकों से पता चलता है कि ईदगाह आबादी से दूर बनाई जाती है। जिस कारण यह एक बडा प्लेटफार्म (चबूतरा) मीनारों के साथ होता है। यही तरीक़ा मुजफ्फर नगर, कांधला और दिल्ली में ईदगाह में प्रयोग किया गया है। सभी प्रमुख स्थानों की ईदगाह इन्टरनेट पर देखी जा सकती हैं। उनको देखने से ज्ञात होता है कि ईदगाह का ढांचा का जो स्वरूप है उसे कैराना की ईदगाह में बहतरीन तरीके से प्रस्तुत किया गया है। क्यूंकि यह आबादी से दूर होती है इसलिये इसे बिल्डिंग नहीं बनाया जाता और मस्जिद भी नहीं कि नमाज़ियों के लिये जगह बनाई जाये। वैसे भी कैराना की दूसरी ईदगाहों में भी नमाज़ पढ़ाई जाती है भविष्य में ज़रूरत पडने पर उन सैंकडों मस्जिदों में से कुछ में ईद की नमाज़ प्रारम्भ की जा सकती है या फिर जैसाकि धार्मिक पुस्तकों से ज्ञात होता है अर्थात आबादी से दूर बनाई जा सकती है।
अफसोस कि कैराना के इतिहास पर प्रकाश डालने वाली पुस्तकों में इसके बारे ना लिखने के बराबर लिखा है।
ईदगाह में 7-8 वर्ष पूर्व जो शिलालेख (कत्बा) लगाया गया है इस बारे में सुना है कि यह जामा मस्जिद में रखा था जो कभी इसी स्थान पर लगा था। इस पर फारसी की आठ में से एक इबारत से पता चलता है कि ईदगाह को चौधरी इमदाद साहब (दादा चैधरी अखतर हसन साहब, वर्तमान अध्यक्ष ईदगाह समिति) ने बनाया था। शिलालेख (कत्बा) बहुत ऊँचे स्थान पर लगा है जिसे पढने में कठिनाई होती है। शिलालेख उर्दू अनुवाद के साथ कम ऊँचाई पर होता तो जनता को समझने में आसानी होती।
सौभाग्य से अभी तक कैराना की ईदगाह का व्यवसायीकरण नहीं किया गया। आज यह कैराना की एकमात्र ठीक-ठाक हालत वाली बेमिसाल ऐतिहासिक धरौहर है जहाँ असीम शांति का अनुभव होता है। ख़ुदा से दुआ है कि इस सुन्दर ऐतिहासिक ईदगाह को हमारी आने वाली नस्लें भी देख कर फखर कर सकें।
आमीन!
15 जनवरी 2007
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यहाँ ईदगाह भी है एक दिलरूबा
बडी दिलकुशा है बहुत खुशनुमा।
पडी जैसे सूरज की इस पर निगाह
तो आता है रोज़ाना वक्ते पगाह(सुबह)।
ईदगाह जिसकी आज हरे नीम के पेडे शौभा बढा रहे हैं कभी इस स्थान पर एक रात में बाग तैयार दिखाया गया था। इस बारे में मुशर्रफ सिद्दीकी, एडिटर साप्ताहिक ‘‘अमन के सिपाही’’ 28 फरवरी 2005 ई. के अंक में इस कहानी को कुछ इस तरह से लिखते हैं।
‘‘कैराना की प्राचीन ईदगाह की तामीर से पूर्व इस भूमि पर खण्डरात थे और पुजाएं के नाम से जाने जाते थे। उक्त भूमि पर एक समाज के लोग अपना हक जताते थे, दूसरी और चैधरी इमदाद अली उक्त भूमि पर अपना हक जताते थे। दोंनों पक्षों का विवाद अदालत तक पहुँचा। एक पक्ष के लोगों ने उक्त भूमि को बाग बताया। मजिस्ट्रेट ने कमीशन भेजा और खुद भी मुआयना किया। अगले रोज कमीशन पहूँचा तो वहाँ पर बाग मौजूद था।
बताते हैं कि उक्त भूमि पर रातों-रात सफाई कराकर आम के बडे टहने एव कुछ पेड लगाए गए थे। दूसरे पक्ष ने कहा कि यह कल रात ही लगाये गये हैं इन्हें हिलाकर देखिये मजिस्ट्रेट ने कहा हम यह देखने आये हैं कि इस भूमि पर क्या है यह नहीं कि कब से है। फिर चैधरी इमदाद साहब (दादा चैधरी अखतर हसन वर्तमान अध्यक्ष ईदगाह समिति) और दूसरे पक्ष के बीच समझौता हुआ कि इस भूमि पर आगे कोई अपील न की जाये और न ही आगे लड़ा जाये। इस जगह पर ईदगाह की तामीर करा दी जाये। जो सभी लोगों के काम आ सके और ऐसा ही किया गया।’’
imLi ka ped,peechhe eidgah men dikhayi de raha he
कैराना के आकर्षण का केन्द जो लगभग 20 बिगह में बनी इस बेमिसाल ईदगाह में इस समय अधिकतर नीम के पेड लगे हैं।
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काबा के इस पुराने दरवाजे की नकल ईदगाह कैराना में की गयी |
मेन गेट के पास चैडी मुंडेर वाला कुआँ था उसे 1995ई. में पाट दिया गया है। इसी के क़रीब एक हैंडपम्प काफ़ी दिन तक लगा रहा।
ईदगाह के दो हिस्से हैं जिन्हें कच्ची ईदगाह और पक्की ईदगाह कहा जाता है। कच्ची तिकोने आकार में हे कभी इसमें मिर्च मण्डी थी जो यहीं से हलवाईयों के कब्रिस्तान के सामने चली गई थी। सुलेमान बागबाँ साहब का कहना है कि नेकदिल मौलवी मौ. उमर साहब मरहूम को मण्डी का जाना पसंद नहीं आया था उनकी बददुआ से तभी से कैराना की मिर्च में उसकी विशेषता गायब होती चली गई।
कच्ची ईदगाह अब सडक से लगभग दो फुट की ऊँचाई पर है इसमें एक बडा बरामदा सपील और एक कोठा जो कि शायद चैकीदार के लिये बना है जिसमें अधिकतर आटा चक्की चलती रही है। इसमें कई नीम के पेड लगे हैं अब कई पेड नए लगाये गये हैं। कच्ची ईदगाह मे 2003 ई. तक एक इमली का पेड था जिससे ईदगाह का आकर्षण दोगुना हो जाता था। कैराना की वर्तमान नस्ल जो ईद की नमाज़ के लिये आते रहे हैं एवं आसपास की आबादी वाले इस इमली के पेड को बहुत याद करते हैं।
1978 ई. में यमुना में ऐसी बाढ़ आई थी कि पानी लगभग 4 कि.मी. बहकर कैराना आ गया था। पानी को आगे बढने से रोकने के लिये ईदगाह के बराबर वाली सडक पर कडा(आड-अवरोध) लगाया गया थी। भोले-भाले लोग कहते थे कि यमुना ईदगाह को सलाम करने आई है।
ईदगाह के दो ऊँचे मीनार हैं जिसमें खेतों की तरफ बायी ओर का मीनार गिर गया था इस पर लगे शिलालेख से पता चलता है कि इसे नवम्बर 1967 ई. में ता’मीर किया गया है।
Purni Eidgah
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दूसरा दायी ओर सडक की तरफ का मीनार बगैर रंग रोगन के बहुत समय तक भय के कारण काला रहा क्यूंकि मशहूर था कि इस पर असर अर्थात जादू टोना है। लेकिन 2001ई. में आसपास की आबादी के नवयुवकों ने पचासो साल से काले मीनार को रंग कर अपनी हिम्मत और ईदगाह से अपने लगाव का परिचय दिया था। वहीं यह भी प्रशंसनीय है कि इन लोगों ने स्वयं ही आसपास की आबादी से इसके खर्च में सहयोग लिया था। और इतनी ऊँचाई पर रंग करना अलग बडी बात थी। मुझे उनमें से अब जहूर हसन ,फुर्क़ान नीलगर, तौफ़ीक बाग़बाँ, मतलूब पुत्र साम्मा और दिलशाद याद हैं। आसपास की आबादी के इसी लगाव के कारण भी ईदगाह 127 सालों से बगै़र चैकीदार के सलामत रह सकी।धार्मिक पुस्तकों से पता चलता है कि ईदगाह आबादी से दूर बनाई जाती है। जिस कारण यह एक बडा प्लेटफार्म (चबूतरा) मीनारों के साथ होता है। यही तरीक़ा मुजफ्फर नगर, कांधला और दिल्ली में ईदगाह में प्रयोग किया गया है। सभी प्रमुख स्थानों की ईदगाह इन्टरनेट पर देखी जा सकती हैं। उनको देखने से ज्ञात होता है कि ईदगाह का ढांचा का जो स्वरूप है उसे कैराना की ईदगाह में बहतरीन तरीके से प्रस्तुत किया गया है। क्यूंकि यह आबादी से दूर होती है इसलिये इसे बिल्डिंग नहीं बनाया जाता और मस्जिद भी नहीं कि नमाज़ियों के लिये जगह बनाई जाये। वैसे भी कैराना की दूसरी ईदगाहों में भी नमाज़ पढ़ाई जाती है भविष्य में ज़रूरत पडने पर उन सैंकडों मस्जिदों में से कुछ में ईद की नमाज़ प्रारम्भ की जा सकती है या फिर जैसाकि धार्मिक पुस्तकों से ज्ञात होता है अर्थात आबादी से दूर बनाई जा सकती है।
अफसोस कि कैराना के इतिहास पर प्रकाश डालने वाली पुस्तकों में इसके बारे ना लिखने के बराबर लिखा है।
ईदगाह में 7-8 वर्ष पूर्व जो शिलालेख (कत्बा) लगाया गया है इस बारे में सुना है कि यह जामा मस्जिद में रखा था जो कभी इसी स्थान पर लगा था। इस पर फारसी की आठ में से एक इबारत से पता चलता है कि ईदगाह को चौधरी इमदाद साहब (दादा चैधरी अखतर हसन साहब, वर्तमान अध्यक्ष ईदगाह समिति) ने बनाया था। शिलालेख (कत्बा) बहुत ऊँचे स्थान पर लगा है जिसे पढने में कठिनाई होती है। शिलालेख उर्दू अनुवाद के साथ कम ऊँचाई पर होता तो जनता को समझने में आसानी होती।
सौभाग्य से अभी तक कैराना की ईदगाह का व्यवसायीकरण नहीं किया गया। आज यह कैराना की एकमात्र ठीक-ठाक हालत वाली बेमिसाल ऐतिहासिक धरौहर है जहाँ असीम शांति का अनुभव होता है। ख़ुदा से दुआ है कि इस सुन्दर ऐतिहासिक ईदगाह को हमारी आने वाली नस्लें भी देख कर फखर कर सकें।
आमीन!
15 जनवरी 2007
लखनउ का रूमी दरवाजा, इसके डिजाइन से ईदगाह का चौबारा तैयार हुआ |
काबा का पुराना चित्र इस दरवाजे के डिजाइन को ईदगाह कैराना के दरवाजे में आजमाया गया |
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1 comments:
bahut khoob! yahaan aakar khshi hui.aap samaj aur mulk ki achchi khidmat kar rahe hain.kabhi mauqa mile to meri taraf bhi aayen.
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