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नबिया पहलवान

उमर कैरानवी

‘‘कैराना मे 1910-50 ई. तक हल्के वजूद के नबिया पहलवान माली (बागबाँ) को मुखालिफ़ पहलवान आश्चर्य से देखता था लेकिन कुश्ती प्रारम्भ होने के कुछ क्षणों पश्चात वह चित और नबिया पहलवान का पैर उसकी छाती पर होता।’’ यह कहना है 90 वर्ष के बुजुर्ग हाफिज़्ा नानू साहब जोकि उस दौर में नौजवान थे और 70 वर्ष के सुलेमान साहब जिन्होंने नबिया का अंतिम दौर देखा है। अधिक जानकारी देते हुये यह बुजुर्ग बताते हैं कि नबिया लगभग 180 किलोग्राम रेत से भरी बोरी को 11 बार खास तरीके से उठाकर फैंकता था यह तरीक़ा मुखालिफ़ पहलवान पर आज़माता था जिससे मुखलिफ पहलवान तीसरी कोशिश तक सदैव चित हुआ। इसे पहलवानी ज़बान में पुटठी मारना कहा जाता है।
नबिया मौलवी फैज़ुल्लाह साहब (रह.) का मूरीद था जोकि कुश्ती के समय दरबार वाली मस्जिद में चहलक़दमी करते हुये रूहानी तरीक़े से (मानसिक तरंगों द्वारा) नबिया की रहनुमाई करते थे।
यह पहलवान अपनी ज़िन्दगी में एक बार हारा था। हुआ यूं कि मौलवी साहब नेे बुध के दिन कुश्ती लडने से मना किया था। बुध को कुछ लोगों ने बहला-फुसला कर छडियों के दंगल में कुश्ती करादी जो यह हार गया। यहां से छडियां गंगोह जाती थी वहां भेष बदलकर नबिया ने उससे कुश्ती का हाथ मिलाया क्यूॅकि पराजित से लम्बे समय तक कुश्ती नहीं लडी जाती थी इसलिये भेष बदलना पडा। उसे तीसरी पुटठी में चित कर दिया।
नबिया के पिता नत्थू पहलवान भी काफी मशहूर थे यह दोनों काफी समय तक एक ही दंगल में लडे। एक पहलवान जो पिता से बराबर रहा उसे पिता के मना करने के बावजूद रातों-रात उसके अपने शहर खेकडा में जाकर चित करके दम लिया।
दिल्ली में अंग्रेज़ वायसराय की बैगम के अखाडे का बडा भारी-भरकम पहलवान जो इसके हल्के वजूद के कारण लडने से इन्कार करता रहा को चित करने पर 150 चांदी के सिक्के बैगम से मिले जो अब 2007 में तीस हज़ार रूपये के बराबर हैं।
नत्थू पहलवान की इकलौती औलाद नबिया विवाहित तो था पर कोई औलाद न होसकी। दंगल ना होते तो यह पहलवान अपनी अच्छी आवाज़ में गा-गाकर शहतूत बेचता था।
छडियों के दंगल से पहले इस पहलवान को बिरादरी वालेे एक रूपया हर घर से देते थे उस समय एक रूपये का एक सेर घी आता था।
जनाब रियासत अली ‘‘ताबिश’’ साहब ने अपनी उपलब्ध उर्दू पुस्तक ‘‘हरीमे अदब’’ जिसमें लगभग 50 पृष्ठों में कैराना का इतिहास है अनीस पहलवान माली (बागबाँ) के ज़िक्र के साथ यह भी लिखा है कि नबिया पहलवान माली (बागबाँ) रूहानी विद्वान मौलवी फैज़ुल्लाह साहब (रह.) का मूरीद और अपने वक़्त का गामा था। 29.7.2007

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